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संक्षिप्त इतिहास
कोई भी कला मनुष्य की भावनाओं की अभिव्यक्ति है.मधुबनी(Madhubani Painting) या मिथिला पेंटिंग चित्रकारी की एक बहुत सुन्दर कला है जो मुख्यतः बिहार राज्य के मिथिला क्षेत्र में सदियों से चली आती हुई एक परंपरा है. इस कला रूप की विशिष्टता इसकी कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में है.प्राचीन काल में यह कला कुछ शुभ अवसरों पर मिट्टी की दीवारों या मिट्टी की ज़मीन पर बनाई जाती थी. यह कला मुख्यतः मिथिला क्षेत्र की महिलाओं द्वारा बनाई जाती है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी रचनात्मकता के आधार पर इस कला का संचय और विकास करती रही हैं.यह इस पुरुष प्रधान समाज में उनकी स्वतंत्रता का एक माध्यम है. यह मुख्य रूप से सामाजिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के रूप में घरेलू कला के रूप में विकसित होती रहती है और हर शुभ काम में बनाई जाती है.
इसका आरम्भ कब और कहाँ हुआ इसका कोई ऐतिहासिक सबूत नहीं है मगर किवदंतियों के अनुसार जब मिथिला के राजा जनक जी की बेटी सीता का विवाह श्री राम के साथ हो रहा था तो उन्होंने अपने राज्य के चित्रकारों को इस विवाह के चित्र बनाने को कहा था.
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वर्तमान सन्दर्भ में जब बिहार में सन 1934 में भयंकर भूकंप आया था तो एक ब्रिटिश अधिकारी विलियम जी. आर्चर को घर की अंदरूनी दीवारों पर यह कला दिखी थी जिसके बाद इस कला का सार्वजनिक स्तर पर संरक्षण शुरू हुआ.
रंगों और विषय–वस्तु का चयन:
मुख्यतः इस कला में घर और समाज में आसानी से मिलने वाले चटख प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है.जैसे: अलग-अलग रंगों के फूल,काजल,हल्दी,नील,चावल,पत्तों,गाय का गोबर. ब्रश के लिए माचिस की तीली और बांस की टहनी में रूई बाँध कर बनाई गयी कलम का प्रयोग किया जाता है. रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल के वृक्ष की गोंद को मिलाया जाता है। सबसे ज्यादा इस कला में हिन्दू देवी-देवताओं की कहानियाँ जैसे-राधा-कृष्ण,रामायण, लक्ष्मी-गणेश, प्राकृतिक नजारे जैसे- सूर्य व चंद्रमा, धार्मिक पेड़-पौधे जैसे- तुलसी और विवाह के दृश्य देखने को मिलते हैं.
विधियाँ:
मधुबनी चित्रकला के दो रूप प्रचलित हैं: (1) भित्ति चित्र जो आमतौर पर मिट्टी की दीवारों पर बनाई जाती हैं और (2) अरिपन जो आंगन में एवं चौखट के सामने जमीन पर निर्मित किए जाने वाले चित्र हैं.
मधुबनी चित्रकला को शुरू में विभिन्न संप्रदायों द्वारा ग्रामीण स्तर पर बनाया जाता था और बनाई गई चित्रों को पांच शैलियों में बाँटा गया था, जैसे कि तांत्रिक, कोहबर, भरनी, कटचन, और गोदना.वर्तमान समय में लगभग सारी शैलियाँ एक-दूसरे में मिल गई हैं.
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वर्त्तमान परिदृश्य:
आज के समय में व्यवसायिक या फिर अधिक से अधिक लोगों तक इस कला को पहुंचाने के उद्देश्य से समकालीन कलाकारों द्वारा अब ये दीवारों, कैनवास, हस्तनिर्मित कागज और कपड़ों पर भी बनाई जाने लगी हैं. जिससे इस कला की लोकप्रियता राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत बढ़ रही है. इस कला को संरक्षित करने तथा इस में नवीनता लाने के लिए नए कलाकारों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है.कला के व्यवसायीकरण के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगातार प्रदर्शनियाँ आयोजित की जा रही हैं जिससे इन कलाकारों को आर्थिक विकास भी हो रहा है.
कई कलाकारों जैसे सीता देवी, गंगा देवी, महासुन्दरी देवी, जगदम्बा देवी को भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार “पद्म श्री” से सम्मानित भी किया गया है.